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आलोचन दृष्टि

आलोचन’ एक प्रयास है, वैचारिक विमर्श का, चिंतन का एवं सृजन का भी। यह ध्यान देने की बात है कि ‘नवसृजन’ केवल साहित्य में ही नहीं संभव है, बल्कि वह समाज एवं उसकी संस्कृति की विभिन्न कलाओं में भी होता है। इस समाज और उसकी विभिन्न कलाओं की संस्कृति पर की जाने वाली तमाम तरह की आलोच्य दृष्टि की अभिव्यक्ति भी एक वैचारिक ‘नवसृजन’ या ‘कला’ है। इसी से सामाजिक एवं वैचारिक चिन्तन की धारा का विरेचन/ परिशुद्धन होता रहता है।

इसका मूल उद्देश्य परम्परागत विचारों, सिद्धांतों एवं विमर्शों का आधुनिक वैचारिक दृष्टियों की कसौटी में कसकर उनका मूल्यांकन करते हुए चिन्तनधारा का विकास करना है। इस विकास की यात्रा को केवल साहित्य के तथ्यात्मक सिद्धांतों के आधार पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक एवं आर्थिक विषयों आदि के अन्वेषणों से प्राप्त सिद्धांतों के आधार पर ही- मूल्यांकन की दृष्टि विकसित करने का प्रयास रहेगा, तभी ‘नवसृजन’ शब्द अपनी सार्थकता प्राप्त करेगा, क्योंकि बहुआयामी दृष्टियों, विचारों के चिंतन के माध्यम से ही नवीन दृष्टि एवं विचारों का प्रतिस्फुरन संभव है, जो वर्तमान पीढ़ी को जागृत करेगा और अगली पीढ़ी का दिशा-निर्देशन भी।

यह ध्यान देने की ज़रूरत है कि सच्चा आलोचक न तो किसी एकल विचारधारा के गिरफ्त में आता है और न ही कभी एकसूत्रता से जुड़ी विचारधारा का निर्वहन ही करता है। वह तो ‘आलोचन’ के अनंत आकाश के नीचे विस्तृत भू-मण्डल में विचरण करता है। इसी वैचारिक ज़मीन पर विचरण करने वाले बुद्धिजीवियों के लिए अज्ञेय ने लिखा है- जितना तुम्हारा सच है, उतना ही कहो...। न कि उन लोगों के लिए- जो एकसूत्रता में बँधकर ‘जो भी कह देते हैं, उसी को सच मान लेते हैं, इतना ही नहीं बल्कि ऐसे तर्क प्रस्तुत करते हैं, जो तर्क कम, कुतर्क अधिक होते हैं, जिसका उत्तर दे पाना दुर्लभ तो नहीं, लेकिन कठिन एवं समय-साध्य तो है ही और कभी-कभी यह विस्तृत मार्ग से विचलित कर देने वाला भी सिद्ध हो जाता है। शायद, इसी को ध्यान में रखते हुए अज्ञेय ने लिखा है कि- ‘मौन भी अभिव्यंजना है।’

इस मौन ने कुतर्कपूर्ण प्रश्नों के उत्तर देने की प्रक्रिया से तो बचा लिया, लेकिन आलोचना की भूमि में बहुत घाल-मेल कर दिया। जिसकी स्थिति हम आज की आलोचकीय प्रणाली में देखते हैं। जिसका न आदि मिलता है, न ही अन्त। बस यही याद आता है कि

‘फ़लसफ़ी बहस के अन्दर खुदा मिलता नहीं।
डोर को सुलझा रहा हूँ और सिरा मिलता नहीं।’

बहुत पहले प्रेमचंद ने एक बात कही थी कि भविष्य में झूठ को सच बनाकर दिखाना होगा। निश्चित रूप से यह उनकी दूरदर्शिता का सूचक है।

यदि हम ध्यान दें तो देखेंगे कि स्वतंत्रता के बाद की आलोचना एकल विचारधारा के प्रभाव में रहकर ही आगे बढ़ी है, जिसे अब बदलने की जरूरत है, क्योंकि एकांगिकता एवं एकालाप की प्रक्रिया हमें दूर तक नहीं ले जा सकती। भलाई इसी में है कि इन सभी प्रकार की एकल वृत्तियों एवं मनोंवृत्तियों से मुक्त होकर आलोचन के विस्तृत भू-भाग की ओर आगे बढ़ें। जहाँ पहुँचने पर यह भी ज्ञात होता है कि न तो कोई बात/विचार ‘सच’ है और न ही ‘झूठ’। हम सभी अपनी-अपनी जानकारी एवं अनुभव के आधार पर ही उसे ‘सही’ और ‘गलत’ का जामा पहनाते रहते हैं और जीवन-यात्रा की वैचारिकता का आनंद उठाते रहते हैं....

-- डॉ. सुनील कुमार मानस